ताल एक निश्चित मात्राओं मे बंधा और उसमे उपयोग
में आने वाले बोलों के निश्चित् वज़न को कहते हैं। मात्रा (beat) किसी भी ताल के न्यूनतम अवयव को कहते हैं। हिन्दुस्तानी संगीत
प्रणाली में विभिन्न तालों का प्रयोग किया जाता है। जैसे, एकताल, त्रिताल (तीनताल), झपताल, केहरवा, दादरा, झूमरा, तिलवाड़ा, दीपचंदी, चांचर, चौताल, आडा-चौताल, रूपक, चंद्रक्रीड़ा, सवारी, पंजाबी, धुमाली, धमार इत्यादि।
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हिन्दुस्तानी संगीत प्रणाली में निम्न गायन के
प्रकार प्रचलित हैं - ध्रुवपद,
लक्षण गीत, टप्पा, सरगम, कव्वाली, धमार, ठुमरी, तराना, भजन, गीत, खयाल, होरी, चतुरंग, गज़ल, लोक-गीत, नाट्य संगीत, सुगम संगीत, खटके और मुरकियाँ ।
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ध्रुवपद - गंभीर सार्थ शब्दावली, गांभीर्य से ओतप्रोत स्वर संयोजन द्वारा जो प्रबन्ध गाये जाते हैं वे
ही हैं ध्रुवपद। गंभीर नाद से लय के चमत्कार सहित जो तान शून्य गीत हैं वह है
ध्रुवपद। इसमें प्रयुक्त होने वाले ताल हैं - ब्रम्हताल, मत्तताल, गजझंपा, चौताल, शूलफाक आदि। इसे गाते समय दुगनी चौगनी आड़ी कुआड़ी बियाड़ी लय का काम
करना होता है।
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लक्षण गीत -
राग स्वरूप को व्यक्त करने
वाली कविता जो छोटे ख्याल के रूप में बंधी रहती है लक्षण गीत कहलाती है।
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टप्पा - टप्पा का अर्थ है निश्चित स्थान पर पहुंचना या
ठहरी हुई मंजिल तय करना। गुजरात,
काठियावाड से पंजाब, काबुल, बलोचिस्तान के व्यापारी जब पूर्व परम्परा के
अनुसार ऊंटों के काफिलों पर से राजपुताना की मरुभूमि में से यात्रा करते हुए ठहरी
हुई मंजिलों तक पहुंचकर पड़ाव डाला करते थे, उस समय पंजाब की
प्रेमगाथाओं के लोकगीत, हीर-राँझा, सोहिनी-महिवाल आदि से भरी
हुई भावना से गाये जाते थे। उनका संकलन हुसैन शर्की के द्वारा हुआ। शोरी मियां ने
इन्हें विशेष रागों में रचा। यही पंजाबी भाषा की रचनाएँ टप्पा कहलाती हैं। टप्पा, भारतीय संगीत के मुरकी, तान, आलाप, मीड के अंगों कि सहायता से गाया जाता है। पंजाबी
ताल इसमें प्रयुक्त होता है। टप्पा गायन के लिये विशेष प्रकार का तरल, मधुर, खुला हुआ कन्ठ आवश्यक है, जिसमें गले की तैयारी विशेषता रखती है।
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