रियाज शब्द रियात से बना है। रियाज का मतलब है इबादत , बंदगी , भक्ति। इन सभी शब्दों का मतलब भक्ति ही है। रियाज जब भक्ति के भाव से किया जाता है तो वह इबादत है। लेकिन आज , रियाज का अर्थ सिर्फ गले का व्यायाम बन कर रह गया है। फर्क तो इतना ही है कि आप उसे भक्ति के भाव से कर रहे हैं या नहीं। रियाज का मतलब है , आप वो सिद्ध करें जो आप अभी तक सिद्ध नहीं कर सके हैं। उसके लिए आप को विश्वास के साथ जूझना पड़ेगा। शुरू-शुरू में आप स्वयं इस बात के प्रति आश्वस्त नहीं होते कि आप जो कर रहे हैं , वह सही है। और आपको सबसे पहले इसी संदेह से जूझना होता है। विश्वास के बिना रियाज में संशय बना रहेगा। इसलिए विश्वास , रियाज के लिए बहुत ही जरूरी है। और इसी के लिए जूझना पड़ेगा। बिना विश्वास के , और संशय के साथ , यदि रियाज करेंगे तो कुछ भी हासिल नहीं हो पाएगा। जैसे संगीत में रियाज का पहला कदम होता है तानपुरे को सुनना , उसकी आवाज पर ध्यान बनाना , फिर खरज या षडज साधना , लंबी सांस लेते हुए ' सा ' को साधते रहना। फिर आहिस्ता-आहिस्ता आपके गुरु के बताए हुए पलटे , पहले सरगम में , फिर आकार , ईकार , ऊकार में। उसके बाद गमक में। यह सब करते हुए मन में लय बनी रहे , और यदि हो सके तो तबले के साथ ताल का भी रियाज हो। इस तरह रियाज रोजमर्रे की चीज है , चाहे वह किसी भी चीज का हो। जैसे संगीत का उदाहरण लें। जब आप का गाना राग और गायकी की स्टेज तक पहुंच जाए तो आपको स्वयं इस बात का अहसास होने लगता है कि आपके गाने में कौन सी बात कमजोर पड़ रही है और कहां आपको ज्यादा ध्यान देना है। कभी राग के बारे में आपको कुछ समझ नहीं आया , कभी बंदिश यानी ख्याल के बोल , या फिर कभी लय के बहर आसानी से पकड़ में नहीं आ रहे हैं... कभी-कभी यह भी होता है कि आज आप एक चीज साध रहे हैं , तो दूसरी छूट गई। लेकिन एक वक्त आएगा जब आपको स्वयं रास्ता मिलेगा कि इस वक्त इस चीज का रियाज करने की जरूरत है। गुरु तो आपका मार्गदर्शन कर ही रहे हैं। एक बात बहुत जरूरी है यहां- अगर आपको अपने गाने में वह सुधार सुनाई दे रहा है , तो आपका रियाज बिल्कुल ठीक चल रहा है। और यदि नहीं , तो डॉक्टर (गुरु) के पास जाइए। मैंने अक्सर देखा है कि रियाज में , और गुरु से शिक्षा लेते समय भी , शागिर्द ' प्रदर्शन ' करने लगता है। इस बेचैनी में वह अपने गुरु को भी नहीं सुनता। गाते समय गुरु के गाने के एक फिकरे के खत्म होने से पहले अपना शुरू कर देता है। और गुरु को भी बारी नहीं देता। यह अति महत्वाकांक्षी होने के कारण होता है। ये दोष अनेक साधकों या शागिर्दों में होता है। रियाज के शुरू के दिनों में एक और दिक्कत पेश आती है। आपको अपना ही गाना कुछ समय के बाद नीरस सा मालूम होने लगता है। इसका मतलब है कि आपको मूड का भी रियाज करना चाहिए। यानी रियाज के लिए मशीनी ढंग से नहीं बैठिए। अच्छा-अच्छा गाना सुनकर अपने आपको री-चार्ज करते रहिए। चिंतन का रियाज बहुत जरूरी है। क्योंकि संगीत की सही समझ , सोच और चिंतन से बनती है। और इसी चिंतन से आप को अपने भीतर छुपे संगीत के दर्शन होते हैं। एक बार साधना में डूब जाने से आपके सुरों में अपने आप असर पैदा होने लगेगा। रियाज का दैनिक क्रम कभी नहीं टूटना चाहिए , चाहे वह दमदार हो या नहीं। उम्र की वजह से यदि आप अपना अभ्यास छोड़ देंगे तो स्नायु नीरस , सख्त और बेजान बन जाएंगे। जब चेहरे पर झुर्रियां पड़ जाएं तब भी आप भक्ति और भाव से गाएंगे। इतना धुआंधार गाना न सही , लेकिन संगीत का कोई भी फिकरा पूरे चिंतन से अलग नहीं होगा। छोटा या बड़ा फिकरा- सभी कुछ आपके पूरे संगीत की क्षमता से शोभित होगा , क्योंकि तब संगीत सिर्फ फिकरों में नहीं होगा , आप का संगीत , फिकरों के पीछे की गहराइयों तक पहुंच चुका होगा। वही संगीत की आत्मा की असली तस्वीर होगी।
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