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भारतीय संगीत के इतिहास में भरत का नाट्यशास्त्र एक अन्य महत्वपूर्ण सीमाचिह्न है । यह माना जाता है कि इसे दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व और दूसरी शताब्दी ईसवी सन् के बीच किसी समय लिखा गया होगा । कुछ विद्वानों को तो यह संदेह है कि क्या यह मात्र एक लेखक की रचना (ग्रंथ) है तथा यह एक सार-संग्रह रहा होगा जिसका रूपान्तर हमें उपलब्ध है । नाट्यशास्त्र एक व्यापक रचना या ग्रंथ है जो प्रमुख रूप से नाट्यकला के बारे में है लेकिन इसके कुछ अध्याय संगीत के बारे में हैं । इसमें हमें सरगम, रागात्मकता, रूपों और वाद्यों के बारे में जानकारी मिलती है । तत्कालीन समकालिक संगीत ने दो मानक सरगमों की पहचान की । इन्हें ग्राम कहते थे । शब्द ग्राम ही संभवत: किसी समूह या सम्प्रदाय उदाहरणार्थ एक गांव के विचार से लिया गया है । यही संभवत: स्वरों की ओर ले जाता है जिन्हें ग्राम कहा जा रहा है । इसका स्थूल रूप से सरगमों के रूप में अनुवाद किया जा सकता है । उस समय दो ग्राम प्रचलन में थे । इनमें से एक को षडज ग्राम और अन्य को मध्यम ग्राम कहते थे । दो के बीच का अन्तर मात्र एक स्वर पंचम में था । अधिक सटीक रूप से कहें तो हम यह कह सकते हैं कि मध्यम ग्राम में पंचम षडज ग्राम के पंचम से एक श्रुति नीचे था ।
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प्राय: रूपात्मक संगीत कहलाने वाली समूची योजना अब हमें काफी अपरिचित प्रतीत होती है लेकिन इस तथ्य पर कदापि संदेह नहीं किया जा सकता कि यह अत्यधिक उन्नत और वैज्ञानिक थी ।
लगभग ग्यारहवीं शताब्दी से, मध्य और पश्चिम एशिया के संगीत ने हमारी संगीत की परम्परा को प्रभावित करना प्रारम्भ कर दिया था । धीरे-धीरे इस प्रभाव की जड़ गहरी होती चली गई और कई परिवर्तन हुए । इनमें से एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन था- ग्राम और मूर्छना का लुप्त होना ।
लगभग पन्द्रहवीं शताब्दी के आसपास, परिवर्तन की यह प्रक्रिया सुस्पष्ट हो गयी थी, ग्राम पद्धति अप्रचलित हो गई थी । मेल या थाट की संकल्पना ने इसका स्थान से लिया था । इसमें मात्र एक मानक सरगम है । सभी ज्ञात स्वर एक सामान्य स्वर ‘सा’ तक जाते हैं ।
लगभग अठारहवीं शताब्दी तक, यहां तक कि हिन्दुस्तानी संगीत के मानक या शुद्ध स्वर भिन्न हो गए थे । अठारहवीं शताब्दी से स्वीकृत, वर्तमान स्वर है :
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सा रे ग म प ध नि
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यह आधुनिक राग बिलावल का मेल आरोह है । इन सात शुद्ध स्वरों या स्वरों के अतिरिक्त, पांच रूप भेद हैं जिसमें कुल सभी बारह स्वर मिल कर सप्तक बनाते हैं ।
सा रे रे ग ग म म प ध ध नि नि
नि:संदेह, बेहतर रूपभेद है: ये श्रुतियां हैं । अत: इन्हें स्वर के बजाए 12 स्वर संबंधी क्षेत्र कहना बेहतर होगा ।
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अभी तक हमने (स्वरग्राम) सरगमों की चर्चा की है: ग्राम, मूर्छना और मेल । यह स्पष्ट ही है कि इन संकल्पनाओं का विकास रागों के जन्म के पश्चात हुआ था । कोई भी लोक गायक एक ग्राम या एक मेल के बारे में नहीं सोचता । जनजातीय और लोक गीत पहले के और बिना किसी सचेत व्याकरण के आज भी विद्यमान हैं । संगीत विज्ञानी ने बाद में रागों का सरगम या स्वरग्राम में वर्गीकरण किया था ।
अब हम अपना ध्यान रागात्मक संरचनाओं पर देंगे । प्रथम संहिताबद्ध राग के लिए हमें पुन: वेदों का सहारा लेना होगा । भरत के नाट्य शास्त्र में जाति नामक रागात्मक रूपों का वर्णन मिलता है । हमें यह जानकारी नहीं है कि इन्हें किस प्रकार से गाया या बजाया जाता था । लेकिन नाट्यशास्त्र और उत्तरवर्ती टीकाओं से कुछ मुख्य बिन्दु लिए जा सकते हैं । इन जातियों में से प्रत्येक को किसी में मूर्छना या अन्य में डाला जा सकता है । ग्रह (प्रारम्भिक स्वर) न्यास (वह स्वर जिस पर एक वाक्यांश रुकता है), स्वरों के राग-निम्न तारत्व से उच्च तारत्व जैसी विशेषताएं इन्हें विशिष्ट बनाती हैं । कई विद्वानों की राय यह है कि राग की संकल्पना, जो हमारे संगीत के लिए मूलभूत है, का जन्म और विकास जाति से हुआ था । राग के बारे में मतंग का वृहद्देशी नामक एक प्रमुख ग्रंथ है । यह ग्रंथ लगभग छठी शताब्दी ईसवीं सन् का है । इस समय तक एक रागात्मक योजना के रूप में राग का विचार सुस्पष्ट और सुपरिभाषित हो गया था । मतंग भारत के दक्षिणी क्षेत्र, सटीक रूप से कर्नाटक से थे । इससे यह पता चलता है कि इस युग तक भारतीय संगीत का व्याकरण समूचे देश में लगभग एक ही था । दूसरे, उन्होंने देशी संगीत के बारे में लिखा है । इसीलिए उन्होंने अपने ग्रंथ का नाम वृहद्देशी रखा था
संगीतात्मक लय में भारत का एक विशेष योगदान ताल था । ताल समय इकाइयों का एक चक्रीय प्रबंध है । समय विभाजन की मूलभूत इकाइयां लघु, गुरु, और प्लुत हैं । वास्तव में इन्हें काव्यात्मक छन्द शास्त्र से लिया गया है । लघु में अक्षर, गुरु दो, और प्लुत तीन शामिल हैं । अपेक्षाकृत बड़ी इकाइयां भी हैं । भरत का नाट्यशास्त्र विभिन्न समय इकाइयों में से ताल का निर्माण करने, इन्हें बजाने के तरीके इत्यादि के ब्यौरे भी देता है । बाद में लेखकों ने 108 तालों की एक योजना का भी विकास किया । ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन तालों के अतिरिक्त कुछ नए तालों जैसे फिरदोस्त ने हिन्दुस्तानी संगीत में प्रवेश कर लिया है । हिन्दुस्तानी पद्धति में ताल बजाने का सबसे महमहत्त्वपूर्ण पहलू ठेका के भावों का विकास करना रहा है । ठेका एक तबले पर हल्के से स्पर्श द्वारा एक ताल को स्पष्ट करता है । ढोल पर प्रत्येक हल्के स्पर्श को एक नाम, एक बोल कहते हैं । उदाहरण के लिए, धा,ता,घे, आदि ।
किसी भी भाषा में हमें एक महाकाव्य, एक चतुर्दश-पदी, एक गीतिकाव्य, एक लघुकथा, इत्यादि मिल सकते हैं । इसी प्रकार से, किसी एक राग और एक ताल का आधार लेकर संगीत के विभिन्न रूपों का सृजन किया गया है । प्राचीन समय से लेकर, संगीत के रूपों को दो व्यापक श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है । ये अनिबद्ध और निबद्ध थे । प्रथम को खुला या मुक्त रूप और द्वितीय को बन्द या सीमित कह सकते हैं ।
अनिबद्ध संगीत वह होता है जिसे अर्थपूर्ण शब्दों और ताल द्वारा प्रतिबद्ध नहीं किया जा सकता । यह एक मुक्त तात्कालिक संगीत है । इसका सर्वश्रेष्ठ रूप आलाप है ।
निबद्ध संगीत के अनेक रूप हैं । प्रबंध गीति उपलब्ध प्रारम्भिक वह रूप है जिसके बारे में कुछ जानकारी मिलती है । वास्तव में प्रबंध का प्रयोग प्राय: किसी निबद्ध गीत, संगीतात्मक कृति के लिए एक सामान्य शब्द के रूप में किया जाता है । इन बद्ध रूपों के बारे में हमारे पास बहुत कम प्रमाण हैं, सिवाए इसके कि इन्हें रागों और तालों को परिभाषित करने के लिए निर्धारित किया गया था । सभी ज्ञात प्रबंधों में से जयदेव के प्रबंध सर्वश्रेष्ठ हैं । यह कवि बारहवीं शताब्दी में बंगाल में रहता था और इन्होंने गीत गोविन्द की रचना की, जो गीतों और श्लोकों के साथ संस्कृत की एक कृति है । यह अष्टपदी है, अर्थात् प्रत्येक गीत में आठ पद होते हैं । आज ये गीत समूचे देश में फैल गए हैं और प्रत्येक क्षेत्र में इनकी अपनी शैली है । वास्तव में, गायकों ने प्रबंधों को अपनी धुनें देने की स्वतंत्रता ली है । इसे दृष्टि में रखते हुए, अष्टपदियों की मूल धुनों का निर्धारण कर पाना संभव नहीं है ।
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जबकि ईश्वरत्व भक्त के पास शिव के रूप में या एक परब्रह्म के रूप में कई रूप ले कर जाता है- श्री विष्णु के दस अवतार की कथा के रूप में भागवत ने भारतीय मानस को जीत लिया है, इसी समय गीतों तथा भवनों की रचना की गई थी, इन दोनों के उपदेश और भजन तरंगों के रूप में उत्तर भारत तक पहुंचे ताकि हमें जयदेव, चैतन्य महाप्रभु, शंकरदेव, कबीर, तुलसी, मीरां, तुकाराम, एकनाथ, नरसी और नानक जैसे सन्त कवि मिल सकें । इस भक्ति आन्दोलन ने सूफी सहित सभी धर्मों और वर्गों का परिग्रहण कर लिया । इसने हमें अभंग, कीर्तन, भजन, बाउल गीतों जैसे असंख्य भक्तिपूर्ण गीत दिए ।
ध्रुपद द्वारा निबद्ध संगीत के महान औपचारिक पहलू से परिचय होता है । विश्वास किया जाता है कि यह प्रबंध संरचना का विस्तार है । चौदहवीं शताब्दी से लेकर अठारहवीं शताब्दी तक ध्रुपद ने लोकप्रियता के लिए एक प्रेरक शक्ति अर्जित की और पन्द्रहवीं शताब्दी से लेकर अठारहवीं शताब्दी तक की अवधि में इसका विकास हुआ । इन शताब्दियों के दौरान हम इसी शैली के सर्वाधिक सम्मानित तथा सुप्रसिद्ध गायकों एवं संरक्षकों से परिचित होते हैं । मानसिंह तोमर, ग्वालियर के महाराजा ही ध्रुपद की व्यापक लोकप्रियता के लिए प्रमुख रूप से उत्तरदायी थे । बैजू, बक्षु और अन्य भी थे । वृंदावन के स्वामी हरिदास न केवल एक ध्रुपदिया थे बल्कि भारत के उत्तरी क्षेत्रों में भक्ति सम्प्रदाय की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विभूतियों में से एक थे । परम्परानुसार, स्वामी हरिदास तानसेन के गुरु थे, जो ध्रुपद के ज्ञात सर्वोत्तम गायकों में एक और सम्राट अकबर के राजदरबार के नौ रत्नों में से एक थे ।
ध्रुपद संरचना के दो भाग है, अनिबद्ध अनुभाग और संचारी में धृपद । गायकों प्रथम मुक्त आलाप है । ध्रुपद विशिष्टत: चार भागों में गाया जाने वाला एक गीत है: स्थाई, अन्तरा, संचारी और अभोग ।
ध्रुपद की अनिवार्य विशेषता इसकी गंभीरता और लय पर बल है । ध्रुपद को गाने की चार शैलियां या वाणियां थीं । गौहर वाणी में राग या अनलंकृत रागात्मक आकृतियों का विकास है । डागर वाणी में रागात्मक वक्रताओं और शालीनताओं पर बल दिया गया है । कंधार वाणी में स्वरों के शीघ्र अलंकरण की विशेषता है । नौहर वाणी अपने व्यापक संगीतात्मक लंघन (आकस्मिक परिवर्तनों) के लिए जानी जाती थी । ये वाणियां अब अद़ृश्य हो गई हैं ।
ध्रुपद का आज भी अत्यधिक सम्मान किया जाता है और इसे संगीत-समारोह के मंच पर तथा अधिकांशत: उत्तर भारत के मन्दिरों में सुना जा सकता है । अब यह जनसाधारण में इतना लोकप्रिय भी नहीं रह गया है और पृष्ठभूमि में चला गया है । ध्रुपद से घनिष्ठ रूप से बीन और पखावज़ को भी आजकल अधिक संरक्षण या लोकप्रियता प्राप्त नहीं है ।
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आज ख्याल जिस रूप में गाया जाता है इसकी दो विविधताएं हैं : धीमी लय या विलम्बित ख्याल और तेज या द्रुत ख्याल । रूप में ये दोनों एक समान हैं । इनके दो अनुभाग होते हैं- स्थाई और अन्तरा । विलम्बित को धीमी लय में गाया जाता है और द्रुत को तेज लय से तकनीक की दृष्टि से प्रतिपादन ध्रुपद की तुलना में कम महत्त्वपूर्ण है । अधिक कोमल गमक और अलंकरण होते हैं ।
दोनों प्रकार के ख्यालों के दो अनुभाग होते हैं । स्थाई और अन्तरा स्थाई अधिकांशत: निम्न और मध्यम सप्तक तक सीमित रहती है । अन्तरा सामान्यत: मध्यम और ऊपरी सप्तकों में चलता है । स्थाई और अन्तरा मिल कर एक गीत, रचना या बन्दिश बनाते हैं जिसे हम ‘चीज़’ कहते हैं । एक समग्र कृति के रूप में यह राग के उस सार को उद्घाटित करता है जिसमें इसे स्थापित किया जाता है ।
ध्रुपद में वाणियों की तुलना में ख्याल में घराने होते है । ये विभिन्न व्यक्तियों या राजाओं अथवा कुलीन पुरुषों जैसे संरक्षकों द्वारा स्थापित या विकसित गायन शैलियां हैं ।
इनमें से प्राचीनतम ग्वालियर घराना है । इस शैली के प्रवर्तक एक नत्थन पीरबख्श थे जो ग्वालियर में बस गए थे और इसीलिए इसका यह नाम पड़ा । इनके हद्दू खां और हस्सू खां नाम के दो पोते थे । ये उन्नीसवीं शताब्दी में हुए थे और इस शैली के महान उस्ताद माने जाते थे । इस घराने की विशेषता खुला स्वर, शब्दों का स्पष्ट उच्चारण तथा राग, स्वर और ताल की ओर एक व्यापक ध्यान है । इस घराने के कुछ प्रमुख गायक कृष्णराव शंकर पण्डित, राजा भैया पूंछवाले आदि हैं ।
आगरा घराने के बारे में कहा जाता है कि इसकी स्थापना आगरा के खुदा बख्श ने की है । इन्होंने ग्वालियर के नत्थन पीरबख्श के साथ अध्ययन किया था लेकिन इन्होंने अपनी शैली का विकास किया । इस घराने में भी स्वर खुला और स्पष्ट है । इस घराने की विशेषता बोल तान है अर्थात् गीत के बोल या शब्दों का प्रयोग करके एक द्रुत या मध्यम लयकारी परिच्छेदी गीत को मध्यम ताल में गाया जाता है । हाल के इस घराने के सबसे प्रसिद्ध संगीतकार विलायत हुसैन खां और फैयाज़ खां रहे हैं ।
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अन्त में हम रामपुर सहसवान घराने पर आते हैं। चूंकि प्रारम्भिक गायक उत्तर प्रदेश के रामपुर के थे, इसलिए इस घराने का भी यही नाम पड़ गया । इसमें धीमे और द्रुत ख्याल सामान्यत: एक तराने के बाद गाते हैं । इस घराने की गायन शैली अति गीतात्मक है और स्वर अलंकरण से परिपूर्ण होते हैं । हाल के इस घराने के दो प्रमुख गायक निसार हुसैन खां और रशीद खां रहे हैं ।
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टप्पा एक ऐसा गीत होता है जिसमें स्वरों को द्रुत लय में गाया जाता है । यह एक कठिन रचना होती है और इसमें अधिक अभ्यास की आवश्यकता होती है । ध्रुपद और ख्याल शैलियों की भांति, ठुमरी और टप्पा दोनों के लिए विशेष प्रशिक्षण अपेक्षित होता है । टप्पा जिन रागों में गाया जाता है, वे उसी प्रकार के राग होते हैं जिनमें ठुमरी गाई जाती है । टप्पा गायन में पण्डित एल. के. पण्डित और मालिनी राजुरकर को विशेषज्ञता प्राप्त रही है ।
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Thursday, October 26, 2017
हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत
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